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'मांझी' फिल्म की समीक्षा: पहाड़ हिला सकती है हथौड़ा-छेनी

यह चल चित्र दशरथ मांझी के इस अनुभव को दर्शाता है की कठिन परिश्रम और सच्चे लगन से जीवन में कुछ भी करना संभव है बशर्ते हम अपने कार्य मे पूरी तरह संलग्न रहें



शिवेंद्र शाण्डिल्य

यह कहानी है बिहार माटी पुत्र दशरथ मांझी की, जीनका जन्म और कर्म स्थल गहलौर गांव है, जो बौद्घ धर्म के पावन स्थल गया जिले में स्थित है । इन्हें "माउंटेन मैन (Mountain Man) " से भी जाना जाता है । यह नामांकरण इनके 22 वर्ष (1960-1982) के अथक परिश्रम से मिला है अथवा अकेले अपने हाथ मे हथौड़ा और छेनी से स्वयं पहाड़ काट कर निकट वजीरगंज के लिए मार्ग बनाने का है ।


1950 के दशक में गहलौर गाँव एक अति पीछड़ा गाँव था जो देश के स्वतंत्र होने के बाद भी मूलभूत सुविधाओ से वंचित था ।जाति प्रथा (ऊंच- नीच, छुआ छुत) , बाल विवाह एवं जमींदार चरम पे थी । विरासत में मिली बंधुआ मजदूरी दशरथ को स्वीकार नही थी अथवा उसने गाँव त्याग शहर के और कूच किया परंतु कुछ वर्ष उपरांत उनकी घर वापसी हुई , 1955 में सरकार के द्वारा सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम प्रस्तुत किया गया लेकिन यह यहाँ के सामाजीक अस्पृश्यता के कुप्रथा पर विराम लगाने में असफल रही । गाँव मे कोई बदलाव न था , पहाड़ पर चढ़ाई कर के ही मुख्य मार्ग से यहां जाना होता था । अपने पूर्व विवाहित पत्नी के साथ वही पर मजदूरी कर अपना जीवनयापन करने लगा । वह मुसहर जाती के थे जो उस समय वहाँ के ग्राम प्रधान या उच्च जाति के लोगो के द्वारा एक नीच जाती मानी गयी थी , इस वजह से उसे अनेक यातनाओ का सामना करना पड़ता था ।


एक गृहस्थ आश्रम की घटना जिसने उसके जीवन में काया कल्प कर दिया जब उसकी पत्नी पहाड़ से गिर पड़ी और निकट में अस्पताल न होने के कारण उनकी गर्भावस्था में मृत्यु हो गयी । यह घटना दशरथ जी के मस्तिष्क से विस्मृत नहीं हो सका । समय पर अस्पताल न पहुंचने उनके जीवन की त्रासदी बन गयी । उन्होंने वह पहाड़ जीसके कारण गाँव से अस्पताल दूर हो गया था उसे अपने हथौड़ी छेनी से ही तोड़ने का असंभव लगने वाला प्रण ले लिया जो प्रारम्भ से ही गाँव के लोगो को हास्यास्पद प्रतीत हुआ परंतु उन्होंने अपने हठ के आगे किसी की भी न सुनी और निरंतर लगे रहे । इस कालखंड में उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा । जैसे :-


• मौसम - भीषण गर्मी और बारिश की कमी से क्षेत्र में सुखाड़ आया । जल- भोजन की कमी में भी दशरथ अडीग रहे ।


• गरीबी - अपने दो बच्चों के भरण पोषण की चुनोतियाँ भी आई । उन्होने इसका भी उपाय लगाया और अपने लक्ष्य की और अग्रसर रहे ।


भ्रषटाचार- राजनैतिक दवाब, झूठा आश्वाशन, सरकारी पैसे का लूट जिससे परेशान हो, वह दिल्ली जाने को मजबूर हुए और निराश लौटे । आपातकाल में सरकारी तंत्र की विफलता भी देखी ।


• नक्सलवाद और माववाद - उनके गृह गाँव भी इस खूनी खेल से अछूता न रहा लेकीन वह विचलित न हुए ।

दशरथ मांझी ने अपने दृढ़संकल्प से महापुरुषों के पुस्तक में अपने नाम का भी एक अध्याय दर्ज करा लिया । उनकी यह कथा अमर है , जिसे 2015 के चल चित्र ने आम नागरिक के मध्य में जीवंत कर दिया है । हम सभी लोग कॅरोनाकाल के मध्य में किसी न किसी अप्रत्याशित समस्याओं का सामना कर रहे हैं, दशरथ मांझी का जीवनी हम सभी के लए प्रेरणा का स्त्रोत है ।


चलचित्र में दशरथ मांझी के द्वारा कहा गया "भगवान के भरोसे मत बैठीये, हो सकता है भगवान हमारे भरोसे बैठा हो", उनके अनुभव को दर्शाता है की कठिन परिश्रम और सच्चे लगन से जीवन में कुछ भी करना संभव है बशर्ते हम अपने कार्य मे पूरी तरह संलग्न रहें ।

(Author is pursuing Post Graduate Diploma in Human Rights Law, NLSIU, Bengaluru. He is also an intern with Academics4Nation)

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