अरुण कुमार
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अपडेट करने की मांग असम के लोगों की वर्षों पुरानी मांग है जिसे मनवाने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा और जिसे पूर्व की केन्द्र सरकारों ने अपने वोट बैंक की खातिर हमेशा अनदेखी की। दरअसल, एनआरसी वह प्रक्रिया है जिससे देश में अवैध ढंग से रह रहे विदेशी लोगों की पहचान की जाती है। 1951 में असम के मुख्यमंत्री गोपीनाथ बारदोलाई की मांग पर प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहली बार एनआरसी जारी की थी। देश विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में भागकर आए शरणार्थियों को बारदोलाई असम में बसाने का विरोध कर रहे थे। 1971 में जब ‘बंग्लादेश मुक्ति संग्राम’ शुरू हुआ तब एक बार फिर बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थी असम में आकर बस गए। आंकड़ों के मुताबिक लगभग 10 लाख शरणार्थी इस दौरान आए ।16 दिसम्बर 1971 को जब एक नए देश बांग्लादेश का निर्माण हुआ तो कुछ लोग तो लौट गए लेकिन अधिकांश असम में ही रह गए।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने तब अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय के छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने भारत पर गंभीर बोझ डाला है। उन्हें वापस जाना होगा। उन्हें हम अपनी आबादी में मिलाने वाले नहीं हैं। ये शरणार्थी भारत की राजनीतिक स्थिरता और आज़ादी के लिए खतरा बन गए हैं। इन्दिरा गांधी ने जो कहा किया ठीक उसके विपरीत । इन्दिरा के समय असम के तीन नेताओं का खूब बोलबाला था- एक थे देवकान्त बरुआ जो कॉंग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और ‘इन्दिरा इज इंडिया, इंडिया इज इन्दिरा का चर्चित नारा दिया था,दूसरे थे फख़रुद्दीन अली अहमद जो भारत के राष्ट्रपति हुए और तीसरे थे मोइनुल हक चौधरी जो बाद में केन्द्रीय उद्योग मंत्री बने । इस गुट ने अवैध प्रवासियों के विरुद्ध कोई भी कदम उठाने नहीं दिया। उन्होने कॉंग्रेस को लगातार जीत दिलाने के उद्देश्य से ‘अली’और ‘कुली’ का समीकरण बनाया। ‘अली’ बंगलादेशी प्रवासियों को और ‘ कुली’चाय बागान में काम करने वाले गैर-असामी मजदूरों के लिए प्रचलित शब्द हैं। असम के तत्कालीन राज्यपाल बीके नेहरू जो इन्दिरा गांधी के चचेरे भाई थे और मुख्यमंत्री बीपी चालिहा ने इन्दिरा गांधी को अवैध प्रवासियों को रोकने हेतु कदम उठाने का आग्रह भी किया लेकिन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने चुप करा दिया। ये बातें बीके नेहरू ने अपनी आत्मकथा ‘नाइस गाइज़ फिनिश सेकेंड’में लिखी है। इस तरह असम में कॉंग्रेस और पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्ट सरकारों ने वोट बैंक की राजनीति के कारण अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ को जारी रखने में मदद की।
बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से आए लोगों के कारण असम के मूल निवासियों में अपनी भाषायी, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना जगी।
बाहरी लोगों के खिलाफ असम के छात्रों-युवाओं ने आन्दोलन शुरू किया। अभी यह आन्दोलन उफान पर ही था कि 1978 में मंगलोडी लोकसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुआ। यहां के सांसद हीरालाल पटवारी के निधन के कारण हो रहे उपचुनाव के दौरान पता चला कि यहां के मतदाताओं की संख्या में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गई है। इस घटना से विदेशी लोगों के खिलाफ चल रहे आन्दोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया। आन्दोलन चलता रहा लेकिन सरकार द्वारा सार्थक कार्रवाई नहीं की गई। अशांति के इस माहौल में 1983 में केन्द्र सरकार ने असम विधानसभा के चुनाव कराने की घोषणा की। आंदोलन से जुड़े संगठनों के बहिष्कार के बावजूद चुनाव कराए गए। जिन क्षेत्रों में असम के मूलनिवासियों का बहुमत था वहां तीन प्रतिशत से भी कम मतदान हुए। जहां बांग्लादेश से आए लोगों की जनसंख्या अधिक थी वहां अधिकतम मतदान हुए। चुनाव परिणाम तो कांग्रेस के पक्ष में आए, राज्य में उसकी सरकार भी बनी लेकिन नैतिक रूप से यह गलत हुआ। चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा हुई जिसमें तीन हजार से अधिक लोग मारे गए। असम के मूलनिवासियों का यह आन्दोलन इतना अधिक उग्र था कि 1984 के लोकसभा चुनाव में असम के 16 लोकसभा क्षेत्रों में से 14 में चुनाव नहीं कराया जा सका।
असम में बढ़ती हिंसा के आगे झुकते हुए15 अगस्त 1985 को आंदोलनकारियों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने समझौता किया जिसे 'असम समझौता' के नाम से जाना जाता है। समझौते के तहत 1951 से 1961 के बीच असम में आकर बसे सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार मिल गया। विदेशी लोगों की पहचान के लिए 24 मार्च 1971 को ‘कट ऑफ डेट’ तय किया गया था क्योंकि इसी दिन बंगलादेश में मुक्ति संग्राम शुरू हुआ था। यह माना गया कि इसी दिन से बांग्लादेश के लोग अवैध रूप से आकर बसना शुरू किया था। अपनी माता के नक्शे कदम पर चलते हुए राजीव गांधी ने भी ‘असम समझौते’ को जमीन पर उतारने का कोई भी प्रयास नहीं किया। फलतः 1991 के साथ-साथ जनगणना के सभी आंकड़ों में असम में बड़ी संख्या में अवैध प्रवासियों की मौजूदगी की बात सामने आई। 10 अप्रैल 1992 को मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने विधानसभा में घोषणा की की पूरे असम में 30 लाख से अधिक अवैध बांग्लादेशी हैं। असम की 40 विधानसभा सीटों पर इन बांग्लादेशियों की जनसंख्या को देखते हुए कुछ विधायकों ने सैकिया सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की। दो दिनों के बाद ही हितेश्वर सैकिया ने अपने बयान से पलटते हुए कहा कि असम में एक भी अवैध बांग्लादेशी नहीं है। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 1971 से 1991 के बीच हिन्दुओं की जनसंख्या 41.89 प्रतिशत बढ़ी तो मुसलमान 77.41 प्रतिशत की दर से बढ़े। बांग्लादेश से सटे असम के 9 जिलों में ये अवैध प्रवासी बहुसंख्यक हो गए हैं। कई जिलों में इनकी संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। 1971 से 2011 के बीच सवा करोड़ वोटर बढ़ गए। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकर अली भुट्टो ने अपनी आत्मकथा ‘मिथ्स ऑफ इंडिपेंडेंस’ में लिखा भी है कि यह सोचना गलत है कि कश्मीर ही एकलौता विवाद है पूर्वी पाकिस्तान से सटे इन जिलों पर भी विवाद है।
अब तक की कोंग्रेसी सरकारों ने असम की जनभावना का ख्याल नहीं रखा। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उन्होने 17 नवंबर 1999 को एनआरसी को अपडेट करने की घोषणा की।
सरकार ने इसके लिए 20 लाख रूपए का बजट भी तय किया जिसमें से पाँच लाख रूपए जारी भी कर दिये गए। दुर्भाग्य से वाजपेयी सरकार काम को आगे नहीं बढ़ा पाई। असम के लोग तीन महापुरुषों का सबसे अधिक सम्मान करते हैं- भक्तिकालीन कवि शंकर देव,वीर लचित बोरफुकन और गोपीनाथ बारदोलाई। इन तीनों महापुरुषों को असम से बाहर कम लोग जानते थे।वाजपेयी सरकार ने शंकरदेव और बोरफुकन पर किताबें प्रकाशित की व बारदोलाई को भारत रत्न से सम्मानित किया। संसद भवन में बारदोलाई की 11 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा भी लगवाई।
वर्तमान केन्द्र सरकार असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों को वापस भेजने को लेकर गंभीर दीख रही है इसलिए उसने एनआरसी को जारी कर दिया है। एनआरसी में लगभग 19 लाख लोगों को जगह नहीं मिली है लेकिन यदि ठीक से जांच की जाए तो ये आंकड़े बढ़ भी सकते हैं। अवैध बांग्लादेशी केवल असम की ही समस्या नहीं रह गए हैं बल्कि धीरे-धीरे इस समस्या ने अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण कर लिया है। इन अवैध अप्रवासियों की संख्या दिल्ली में भी बढ़ती जा रही है। ये लोग तमाम तरह के अपराधों में भी लिप्त हैं। केन्द्र सरकार यदि इन अवैध प्रवासियों को वापस भेजती है तो यह असम के लोगों के साथ न्याय होगा। अमेरिका ने भी 1930 में मैक्सिको से आए 30 लाख लोगों को वापस भेज दिया था।
(लेखक ने जेएनयू से पीएचडी की है और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं)
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